Tuesday, February 23, 2010

मन से आँखों तक...

यूँ तो दुनियां में बहुत से सम्बन्ध देखे हैं परन्तु मानव शरीर में आँखों और मन के बीच जैसे सम्बन्ध विरले ही. सुनकर पहली बार में अजीब लगे शायद पर यही सत्य है. इसकी व्याख्या बहुत ही सरल है. मन में घटता सब कुछ चमत्कृत रूप से इन आँखों में दिखाई दे जाता है. जैसे ख़ुशी में आँखों का मुस्कुराना, दुःख में इनका भीग जाना, क्रोध में इनका लाल हो जाना, सफलता मिलने पर चमक उठना और उदासी में विरक्त हो जाना, बहुत ही गहरा सम्बन्ध है. जब मैं सोचने समझने लायक हुई तो ये सब महसूस होना आरम्भ हुआ. जब और बहुत से बच्चे आपस में खेलने में मशगूल होते तो मेरा मन या तो कहानी की किताबों में या फिर सोचने में मशगूल रहता. असल में घर में हर महीने ३-४ किताबें अखबार वाला दे जाता था. जिसमे नंदन, चंदा मामा, कादम्बिनी और अन्य किसी किताब की विशेष प्रति (यदि उस महीने निकली है तो) होती. हालांकि किताबें घर में आयुवर्ग के हिसाब से बटी थीं, जैसे नंदन और चंदा मामा मेरे और भाई के लिए, अन्य किताबें जिनका विषय वर्ग थोडा गंभीर होता वो घर के बड़ों के लिए होतीं. परन्तु मेरी साहित्य से मित्रता कुछ यूँ थी कि ये सब किताबें कुछ ही दिनों में पूर्ण हो जाया करतीं तो मज़बूरी वश घर के स्टोर में रखे पिताजी के पुराने संकलन ही मेरी अंतिम आशा होते. एक बार यूँ ही उनकी पुरानी धर्मयुग के संकलन में कहानियां तलाशते मेरे हाँथ मनुष्य के हाव भावों द्वारा उसका व्यक्तित्व समझने की फटी पुरानी पुस्तक लग गई. जब पढना आरम्भ किया तो सर मुंडाते ओले पड़ने की स्थिति थी क्योंकि पुस्तक के पहले कुछ पृष्ठ लापता थे परन्तु विषय इतना रुचिकर था कि पढ़े बिना रहना मुश्किल था. उसी पुस्तक ने मेरे अन्दर लोगों के हावभाव उनकी शारीरिक गतिविधियाँ देखकर उनका व्यक्तित्व जांचने की सनक भर दी. कोई कैसे देखता है, कितना नज़र मिलाकर बात करता है, उसकी नाक की बनावट उसके क्रोध को कैसे प्रदर्शित करती है, कान बड़े हैं तो व्यक्ति कितना बुद्धिमान या सनकी है, होंठों की बनावट से व्यक्ति की कृपणता का क्या सम्बन्ध है और उस पुस्तक का सबसे बड़ा अध्याय जो आँखों पर था. ऑंखें; छोटी, बड़ी, काली, भूरी, नीली, बादामी, इलाइची जैसी, पास-पास या दूर स्थित, उनका खुलना, बंद होना, पलकों की बनावट, और यहाँ तक कि उनकी दूर और दिव्य दृष्टि पर भी पढ़ डाला. उस पुस्तक ने बहुत कुछ बताया जो १०० में लगभग ८०% सत्य निकला (तब मेरी प्रयोगशाला पिताजी ही थे. सबसे पहले उन्हीं के व्यक्तित्व का सूक्ष्म निरक्षण पुस्तक के अनुसार शब्दशः किया गया, तब उन्होंने हंसते हुए माँ से कहा कि पुस्तक खरीदते समय मैंने ये कदापि नहीं सोचा था कि इसकी एक एक पंक्ति से मुझे अग्निपरीक्षा की भांति गुज़रना होगा!) बड़े होने के दौरान मुझे अक्सर उससे सम्बंधित विचार आते रहते. उन्हें आसपास के वातावरण और स्वयं पर लागू करके देखती रहती. उन्हीं दिनों मैंने महसूस किया कि ये आँखें दिन में कई बार भर आतीं हैं कभी कोई भावुक कहानी पढ़ते, कभी सड़क पर पड़े किसी बेजुबान चोटिल जानवर को देख तो कभी माँ या पिताजी के द्वारा सर पर स्नेहिल हाँथ भर रख दिए जाने से.. ये रासायनिक अभिक्रिया समझने में थोडा समय लगा कि कैसे आखिर इन आँखों का मन से इतना गहरा सम्बन्ध है कि हर भाव इनमे उतर आता है. जैसे बचपन में पतझड़ की एक शाम घर के सामने खड़े पेड़ की पत्तियों को तेज़ हवा में टहनियों से झड़ते देख एक अजीब सिहरन से आँखों में पहले डर और फिर आंसू उतर आए. उस समय सिर्फ इतना ही महसूस हुआ कि सामने खड़ा पेड़ एक की बजाय दो दिख रहा है कि पिताजी ने टोंका बेटे आँखें क्यों गीली हैं? तब लगा, अरे ये कब हुआ!! आज शाम भी अपने घर की खिड़की से सामने खड़े बर्फ से ढंके एक सहमे पेड़ को देखतीं हूँ तो कुछ पल बाद वो दोहरा लगता है... बहुत कुछ बताने वाली उस पुस्तक में इसका कारण नहीं लिखा था....

स्वर्णिमा "अग्नि"

7 comments:

  1. बड़ी ख़ास रचना है ये आपकी। मैं बड़ा प्रभावित हुआ हूँ। शायद आपकी ये अभिव्यक्ति अपने आपमे सम्पूर्ण है । साहित्य प्रेम की वो वचपन की दुनिया मेरे दिल में भी पनपती रही। शायद दूसरों के मन की बात कह पाना ही तो अभिव्यक्ति की सम्पूर्णता है।

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  2. realy nice yaar. pedh ker meri aakhan bi bher aayee

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  3. पढ़ के लग रहा है बचपन के दिन की घटना को ऐसे लिखा गया है जैसे किसी ने भोतिक विज्ञान के सिधान्त को सरल शब्दों मै समझा दिया हो..

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  4. अच्‍छी अभिव्‍यक्ति है, बस ऐसे ही लिखती रहो।

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