Wednesday, February 17, 2010

विनम्रता, तू न गई इस मन से..

"विद्या ददाति विनयम". ये एक लघु पंक्ति स्वयं में अर्थ का सागर समेटे है. सरल भाषा में इसका अर्थ है कि विद्या व्यक्ति में विनय (विनम्रता) का संचार करती है. आदर्श रूप से ऐसा ही होता है, सही मायनों में पढ़ लिख कर व्यक्ति में ज्ञानोदय होता है जो मस्तिष्क की लघुता समाप्त कर उसे एक दिव्य दृष्टि देता है. कुल मिलाकर व्यक्ति की मानसिकता से लेकर उसके व्यवहार तक में आश्चर्यजनक परिवर्तन आता है जो उसे समाज के हर प्राणिमात्र को प्रेम एवं आदर देना सिखाता है. परन्तु न जाने क्यों अब ये सब बीती बातें लगतीं हैं. पढ़े लिखे समाज का जो व्यवहार कल तक अनुकरणीय था आज वही बोझ सा बनता जा रहा है. थोड़ी सी योग्यता पा लेने पर व्यक्ति का गर्वोंन्मत्त हो जाना अब साधरण सी बात है. व्यवहारिकता की आड़ लेकर लोगों में स्पष्टवादिता धृष्टता की हद पार कर रही है. कुछ अनुभवों से दो चार होने के बाद आज ये सब लिखने के लिए बाध्य हूँ. हाल ही में इस शहर (Gothenburg) में एक ट्राम में यात्रा करते समय कुछ भारतीय महिलाओं से सामना हुआ. प्रकृतिवश भारतीय चेहरे देखकर अभिवादन की मुद्रा में मुस्कुरा पड़ी (मुस्कुराना मेरे व्यक्तित्व का अभिन्न भाग है. परास्नातक में रैगिंग होते समय मुझे इसी के कारण असंख्य समस्याओं से दो चार होना पड़ा, ये कैसे भूल सकतीं हूँ!), पर भूल गई कि सामने दिखतीं महिलाएं मात्र शरीर से ही भारतीय थीं. वेशभूषा से लेकर भाषा और मानसिकता तक सिर्फ विदेशी प्रभाव ही दिख रहा था. एक ने अपनी मेकअप द्वारा बड़ी की गईं सुन्दर आँखें मेरी मुस्कराहट का उत्तर दिए बिना फेर लीं तो दूसरी ने हिचकिचाहट और अहसानों से भरी मुस्कान मेरी ओर उछाल कर्त्तव्य की इति श्री की. ऐसे और कई अपमान झेल चुकी मेरी विनम्र मुस्कान चोट खाई गौरैया सी होंठों के घोंसले में दुबक गई. कानों में सालों पहले दी गई माँ की सलाह गूंजी, "बेटा थोडा रिज़र्व रहा करो, भलाई का ज़माना गया". हाँ ठीक ही तो था, रिज़र्व रहना. पर अब क्या हो सकता था! चोट लगनी थी, सो लगी. आखिर विनम्रता के मूल्य जो चुकाने हैं. और दुर्भाग्य देखिये, भीड़ से भरी उस ट्राम में दोनों ही पक्षों को एक दूसरे से भागने का स्थान नहीं मिला. सो पास-पास ही खड़े हुए. न चाहते हुए भी २-३ बार नज़रें मिल ही गईं. ऐसी स्थिति से गुज़रना मेरे लिए दुखद था. चेहरे मोहरे से मेरी ही तरह १००% उत्तर भारतीय दिखने वाली ये तथाकथित विदेशी महिलाऐं आपस में धाराप्रवाह अंग्रेजी में बात कर रहीं थीं. हालांकि एक ने हिंदी बोलनी आरम्भ ही की थी कि दूसरी मोहतरमा ने मेरी ओर इशारा कर (मुझे उनका वार्तालाप समझ में न आए इस उद्देश्य से) पुनः अंग्रेजी बोलनी आरम्भ कर दी. आज़ादी के वर्षों बाद भी स्वतंत्र भारत के नौनिहालों को आपस में बात करने के लिए एक विदेशी भाषा का सहारा लेते अक्सर देखतीं हूँ जो स्पष्ट रूप से स्टेटस सिंबल होने के साथ-साथ व्यवहार में भी शामिल हो गया है. अब ये समझना टेढ़ी खीर है कि मुझे अंग्रेजी नहीं आती ये उन्हें कैसे लगा! शायद मेरी मांग में भरा सिन्दूर और माथे की बिंदी देख (जो आज की आधुनिक भारतीय विवाहिताओं के लिए पुराना फैशन बन गया है) मुझे ज्ञानशून्य पुराने ज़माने की गृहपत्नी समझने की भूल कर बैठीं. मन ही मन हंस रही थी कि मोबाइल बज उठा, दूसरी ओर पति थे. पति से शुद्ध हिंदी में मेरा वार्तालाप सुन उन्हें मेरे मूर्ख होने का (उनका यही पैमाना था) पक्का सबूत मिल ही गया. उनमे से एक ने सर्वथा कॉल सेण्टर वाली अंग्रजी में मेरे हुलिए और उस बेवजह मुस्कान की आलोचना कर डाली तो दूसरी ने मुझे "बेचारी" एन.आर.आई. पति की अनुगामिनी बता कर मेरा पक्ष लिया. बहुत कम ऐसे अवसर आएँ हैं जब मैं एक मिश्रित भावना के कारण चीखना चाहती थी, आज वही एक अवसर था. वो ये सब कह सुन कर खुश थीं और मैं मन में खीझ लिए अपने स्टॉप पर उतर गई. मस्तिष्क में अनेकों वो चित्र बन गए जब मैंने अपनी शिष्टता के कारण जीवन में चोट खाई और आज भी खाती जा रहीं हूँ. प्रतिदिन के छोटे छोटे से उदाहरण हैं. कितने ही बार मेल में लोगों द्वारा पूंछे गए अपने हाल चाल के ब्यौरे देने के बाद उनसे पूंछे गए प्रश्नों के जवाब आज तक नहीं आए हैं. आज इस लेख के माध्यम से मैं उन सभी तथाकथित परिचितों/मित्रों से पूछतीं हूँ कि क्या आप मात्र दूसरों के जीवन में होने वाले विकास को लेकर चिंतित हैं और अपने जीवन को परम गोपनीय बनाकर रखना चाहते हैं? क्या आप उत्तर देना भूल जाते हैं या पढ़ लिख लेने के बाद आपका शिष्टाचार ख़त्म हो गया है? पर इस विनम्रता की डगर पर चलने में मुझे फिर भी कोई संकोच नहीं क्योंकि मुझे सिर्फ इसी पर चलना आता है. एक और भी गलतफहमी आज की पीढ़ी में है. लोग व्यक्ति विशेष की विनम्रता को उसकी कमजोरी समझ लेने की भूल कर बैठते हैं परन्तु ये नहीं जानते कि विनम्रता का अर्थ किसी से डरना या किसी स्थिति से भागना नहीं है, अपितु अपने व्यवहार की शालीनता बनाए रखना है अन्यथा "महाभारत" के कृष्ण दु:शासन प्रकरण को कौन नहीं जानता!!

परन्तु इस सब अंधकारों के मध्य भी कुछ उदय होती सूर्य की किरणें दिखतीं हैं. हाल ही में संपर्क में आए UPSC आई.ए.एस. परीक्षा में अतिउच्च स्थान प्राप्त श्री गंगवार जी का मृदु विनम्र व्यवहार एक उदहारण लगता है. क्या हमारा बुद्धिजीवी समाज उनसे कुछ सीखेगा?

स्वर्णिमा "अग्नि"

5 comments:

  1. आज भाषा को ही प्रबुद्धता की पहचान बना लिया गया है जबकि कई बार तो निपट बेपढ़ी-लिखी महिला भी हमसे अधिक ज्ञानवान एवं बुद्धिशील होती है। मैंने तो यही देखा है कि अपने अज्ञान को छिपाने के लिए ही लोग भाषा का सहारा लेते हैं। जिससे वे विशेष दिख सके और लोग उन्‍हें प्रबुद्ध मान लें। अच्‍छी पोस्‍ट है।

    ReplyDelete
  2. बहुत ही सटीक लिखा है आपने डॉ. गुप्ता. मैं आपसे अक्षरत: सहमत हूँ. मनोबल बढ़ाने का धन्यवाद.

    ReplyDelete
  3. स्वर्निमाजी
    देशा में रहकर विदेशी होना, विदेश में रहकर देशी होना
    दोनों में बहुत अंतर है
    भाशावोंको ही लीजिये,
    हमें अंग्रेजी बात करना अच्छा लगता है
    हमारी भाषा हमें अच्छी नहीं लगती
    हमारी बौद्दिक स्थिति अभी भी कोई प्राणी से कम नहीं है
    अच्छा लेखन

    ReplyDelete
  4. di bahut sahi likha hai apne, me yahan january me ayi thi, akele, ghar ko chod ke, aur yahan par bus me, ya stop par, ya kisi shop par aise hi kisi hindustani se chehre ko dekhti thi, to apne aap man unki taraf khicha chala jata tha, unse baat karne ke liye, unse bus yahi poochne ke liye ki aap bhi india se hain kya? par unka aanken churana aur hassne me bhi kanjoosi dikhana, mujhe rok deta tha.. sach me vo NRI ban jate hain..:)

    ReplyDelete