Wednesday, June 2, 2010

एक अहसान और कर दो...

कुछ भावनाओं को व्यक्त करने के लिए सिर्फ काव्य का सहारा लिया जा सकता है, क्योंकि उसी में इतनी गहराई होती है कि कहे अनकहे सभी शब्दों को स्वयं में समेट सके. कई बार हतप्रभ रह जातीं हूँ आसपास ऐसा कुछ घट रहा होता है. व्यक्त कर देना कई घावों पर मरहम लगा देता है. शायद ये पंक्तियाँ मन की टीस कह पाएं:

कोई इन्हें दोस्ती के मायने समझाए,
आज अहसान जताने वाले कभी खुद को दोस्त कहते थे!
गलती की है आज इन्होंने, या कल ये गलत थे,
इनकी गलतियों के इल्ज़ाम हम अपने सर लेते हैं!!
गज़ब का देखिये ये भी रिश्ता है,
कल सर पर बिठाते थे, आज सर कलम करते घूमते हैं,
पर हम भी हम ठहरे,
हम तब भी खुश थे, हम आज ये भी सहते हैं/
याद हैं हमें अपनी गलतियाँ, पर शायद तुम भूल गए,
एक शाम अपनी गलतियों पर, तुम भी रोए थे,
तुम भूल गए एक वादा, कि अच्छा बुरा हमारे बीच रहेगा,
वादाखिलाफी हमने नहीं की,
पर हम पर सवाल उठाने वाले अक्सर तुम्हारा नाम लेते हैं/
हमने सोचा था दोस्ती नहीं तो अनजान राहें सही,
पर तुमने ना दोस्ती छोड़ी ना दुश्मनी ही,
आज सोचतीं हूँ हर अपने से दूरी भली है,
ईमान बदलते इंसां का कुछ देर लगती नहीं/
कभी जो सामने आ जाओ तो आखें फेर लेना,
शिकायतें बहुत हैं तुम्हें, इन नज़रों से क्या देखोगे सही?
ये नाम फिर जुबां पर मत लाना,
हमें यकीं है दोस्ती की मौत पर ये रस्म निभाना तुम भूलोगे नहीं/
एक चुभन और बाकी है,
अब अहसान करके कभी कहना नहीं,
कहते ही ये मिट्टी हो जाते हैं,
"करके भूल जाना!!", इस अजनबी पर तेरा अंतिम अहसान होगा यही//

स्वर्णिमा "अग्नि"