Wednesday, October 14, 2009

मित्रता

कई दिनों से मस्तिष्क में कुछ भावनाएं उमड़ रहीं हैं. बीते जीवन पर दृष्टि डालूं तो एक कैनवास सा नज़र आता है, संबंधों का ... हर व्यक्ति कुछ सम्बन्ध साथ लेकर जन्म लेता है जिन्हें पारिवारिक रिश्तों का नाम दिया जाता है तो कुछ सम्बन्ध स्वयं विकसित किये जाते हैं... रिश्ते तो अमिट निश्चित हैं परन्तु स्वयं विकसित किये गए सम्बन्ध हमारे द्वारा निर्धारित किये जाते हैं. इनमें कुछ सम्बन्ध औपचारिक होते हैं तो कुछ प्रगाढ़ मित्रता के, आज उन्हीं संबंधों पर कुछ लिखूंगी.
ये मित्रता का सम्बन्ध सबसे दैवीय, शुद्ध एवं स्वार्थरहित माना गया है. मित्रता का क्या ओर छोर हो सकता है? शायद यही एक ऐसा परलौकिक सम्बन्ध है जिसमे व्यक्ति हर प्रकार से स्वतंत्र महसूस करता है. हृदय की समस्त वेदनाएं भी मित्र के सम्मुख बिना किसी भय या संकोच के प्रकट की जा सकतीं हैं और उसके सुझाव किसी भी विषम परिस्थिति से पार दिला सकते हैं. किन्तु फिर भी कुछ स्वयं के अनुभव तो कुछ आसपास की घटनाओं से कहीं अंतर्मन डरा हुआ है. ये सम्बन्ध कितने मधुर लगते हैं जबतक स्वार्थ-हीन रहते हैं परन्तु क्या हो जाता है जब रातों रात इसी दैवीय मित्रता से विश्वास उठ जाता है. जब सम्बन्ध बोझ समझकर ढोए जाने लगते हैं और हृदय सशंकित रहता है किसी अनहोनी की आशंका से.. वही मित्र जो कभी हृदय ही नहीं आत्मा का भी भाग था जब शत्रु बन जाए, उस भुवनमोहिनी हँसी में विष घुला लगे तो हृदय दोबारा किसी पर विश्वास करने को तैयार नहीं होता. इस मन की गति भी बहुत अजीब होती है. असीम प्रेम और घृणा के मध्य कहीं एक बहुत महीन सीमारेखा होती है जो किन्हीं परिस्थितियों में स्वयं ही ये मन पार कर जाता है. क्या विडम्बना है की उस सर्वव्यापी ने मनुष्य को इतना आत्मकेंद्रित बनाया है कि जब तक सब कुछ अपने पक्ष में चलता है तब तक व्यक्ति प्रसन्न रहता है और इस लीक से हटते ही मन विचलित होने लगता है. मित्रता बहुत त्याग मांगती है. इसमें स्वार्थ के लिए स्थान नहीं है. और यदि कहीं भी स्वार्थ है तो वहां मित्रता हो नहीं सकती. वो सालों तक चलने वाले संबंधों में भी जब कुछ व्यक्तिगत लाभ कि आशा जागने लगे तो क्या बचता है? वो अधिकार जो कभी बिना कुछ पूंछे आत्मसात कर लिए गए, समय बीतने के साथ शायद चुभने लगते हैं. कभी किसी शायर ने ये कहा था कि:

मुनासिब फासला रखिये, भले कैसा ही रिश्ता हो,
अधिक नजदीकियों में भी घुटन महसूस होती है....

हाँ, जो भी जीवन में देखा और महसूस किया है उसके बाद ये पंक्तियाँ सत्य लगतीं हैं. भावनाओं का मूल्य नहीं होता, परन्तु उन्हें ठेस लगने पर अथाह कष्ट का मूल्य व्यक्ति जीवन भर चुकाता रहता है. वही सम्बन्ध जो कभी गर्व का कारण हों यदि आपको हंसी का पात्र बना दें तो एक अंतर्ग्लानी कभी पीछा नहीं छोड़ती.

ये लेख मित्रता को समर्पित था... उस परम स्नेही मित्र को भी जो जीवन के उतार चढावों के बीच खो गया.. किन्तु कोई भी दुर्दांत घटना हृदय में समाहित अच्छे पलों की स्मृति और व्यक्ति विशेष के प्रति कृतज्ञता नहीं मिटा सकती. मुझे कम किन्तु बहुत अच्छे मित्र मिले हैं. उनके नाम आज यहाँ लिखना उतना आवश्यक नहीं जितना ह्रदय की असीम गहराइयों से उनके प्रति कृतज्ञता ज्ञापित करना है. आज जहाँ भी मैं हूँ उसके पीछे उन सबका कोई न कोई योगदान है. हाँ बहुत से प्रश्न अनुत्तरित हैं, उनके उत्तर मिलें न मिलें मित्रता मानस पटल पर अंकित रहेगी.... मृत्युपर्यंत ....

स्वर्णिमा "अग्नि"