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इन दिनों लगातार सुर्खियों में देश के सर्वोपरि तकनीकी शिक्षण संस्थान आई. आई. टी. के अध्यापकों की सरकार से वेतनमान व अन्य भत्ते बढ़ाने की मांग है. एक बार तो अपनी आखों पर विश्वास नहीं हुआ कि ये समाचार सत्य है! भारत के सर्वोत्तम तकनीकी संस्थान होने का गौरव आई. आई. टी. को प्राप्त है. यही वो संस्थान है जो हर भावी इंजिनियर का सपना है. यहाँ के शिक्षण विभाग का व्यवहार पूरे देश के अध्यापकों के लिए उदाहरण है और आज इसी संस्थान के अध्यापकों को वेतन और सम्मान के लिए हड़ताल पर जाते देख मन में एक अजीब सी अनुभूति होती है. शिक्षा का व्यवसायीकरण हुआ है इसमें कोई दो-राय नहीं. परन्तु ऐसे व्यवहार की आशा क्या वाकई इन वरिष्ठतम अध्यापकों से की जा सकती है? निश्चित रूप से नहीं. एक और दलील यहाँ दी जा सकती है, कि इस घटना का दूसरा पक्ष भी देखा जाना चाहिए. अपने अधिकारों के लिए लड़ना कोई गलत बात नहीं फिर क्यों न लड़ने वाले देश के गौरव हों! आई. आई. टी. रूढकी की पूर्व शोध छात्रा रह कर ये मैंने महसूस किया है कि अध्यापकों को मिलने वाली सुविधाएँ यदि बहुत नहीं तो कम भी नहीं हैं. रही बात सम्मान की तो ये न तो वेतन का मोहताज है और न ही लड़ने से प्राप्त किया जा सकता है. विरोध के कई तरीके हो सकते हैं, किन्तु इस गौरवशाली संस्थान के अध्यापकों का भूख हड़ताल पर जाकर अधिकार प्राप्त करना कितना प्रासंगिक है ये निश्चित रूप से विचारयोग्य है. केंद्र को चाहिए कि आई. आई. टी. प्रशासन से शांतिपूर्वक बात करे. हमारे मूर्धन्य अध्यापकों के कुछ सुझाव निश्चय ही तकनीकी शिक्षा में सुधार करने योग्य हैं. आशा है कि जल्द ही इस विषय में कुछ शांतिपूर्ण पहल होगी. हर क्षेत्र में विकास का स्वप्न जो तरुण भारत खुले नेत्रों से देख रहा है वो इस देश के अध्यापकों के त्याग के बिना पूर्ण होना असंभव है.
इस देश में फिर से अर्जुन पैदा हों इसके लिए द्रोणाचार्य जैसे गुरु होना अवश्याम्भी है......
स्वर्णिमा "अग्नि"
बचपन की मित्रता सदा याद रहती है. मुझे याद है हर समय पुस्तकों में उलझी रहने वाली मैं स्वभाव से हंसमुख होने के बावजूद कोई आत्मीय मित्र नहीं बना सकी. न जाने कब मन ने अपने आँगन में खड़े उस अमरुद के पेड़ को अपना मित्र मान लिया.. नन्हीं लेखनी ने तब उस मित्र के लिए कुछ शब्द उकेरे थे.. कुल जमा ११ वर्ष की आयु में लिखे गए वो पहले शब्द अब भी उस घनिष्ठ मित्र की याद दिलाते हैं जो घर के आँगन के विस्तार के समय उसकी लघुता के साथ स्वयं अपनी आहुति भी दे गया. आँखें बहुत दिन रोती रहीं फिर धीरे-२ समझ गईं अब वो कभी नहीं आएगा. आज इस स्वार्थी विश्व में लोगों की कटुता देखकर अपने उस मित्र की याद आती है जो बस देना जानता था. कहते हैं हर जीव में आत्मा होती है. न जाने आज तुम्हारी आत्मा किस रूप में होगी? अपनी सखी को पहचानती भी होगी या नहीं पर ये पंक्तियाँ तुम्हे समर्पित थीं और सदा रहेंगी...
कितने आए कितने गए, कितने जुड़े कितने खुले,
पर ये सिर्फ तुम हो जो रहे अडग, निश्छल, अचल.
तुम्हारी सरसराती बाँहें देतीं हैं अहसास कोमलता का,
तुम्हारी मीठी मीठी छाँव देती है अहसास ममता का,
हरे हरे पत्तों से सीखा मैंने जीना,
और झरे पीले पत्तों से, सारे दुःख बस हंसकर पीना.
मीठे-मीठे फलों से अपने कभी हमारी भूख मिटाते,
कड़ी धूप सह छाया देकर जीना हमको सदा सिखाते,
अजब प्रेम का मूर्त रूप है, तुम्हारा ये बदन मनुज सा,
फिर किस प्रकार कहूँ मैं कि तुम हो बस एक पेड़ अमरुद का?
स्वर्णिमा "अग्नि"
कभी-कभी आश्चर्य होता है कि जीवन का चक्र भी कैसा है! अपने ह्रदय के टुकडों को सीने से लगाकर माता पिता परवरिश करते हैं हर संघर्ष से लड़ने लायक बनाते हैं और फिर एक दिन वही बच्चे उन्हें छोड़कर आगे बढ़ जाते हैं... पर यही रीति है.. समय का चक्र भी यही. किन्तु कभी पीछे रह गईं उन सूनी आँखों को पढ़ा है?? विद्यालय से निकलने के बाद मैं मेरठ पढने आगई और आशीष (भाई) लखनऊ. परास्नातक के बाद ५ वर्ष का शोध और फिर उसके तुंरत बाद विवाह. अब तो देश से भी बाहर हूँ. लगता है उनके साथ बिताया समय कितना कम था. हमेशा मम्मी पापा ही सेवा करते रहे दुःख हरते रहे हम क्या कर सके उनके लिए? अब तो आशीष भी नौकरी कर रहा है लखनऊ में और मम्मी पापा अकेले रायबरेली में. मैं भी इतनी गंभीरता से न सोचती यदि उस दिन पापा कि लिखी ये पंक्तियाँ न पढ़ती..
बाग़ का बाग़ सूना पड़ा है,
पतझर का झोंका इतना कड़ा है,
वृक्ष से उड़ गए सब पखेरू,
धूप में निर्जीव पीपल खडा है...
बस यही लिखा था उन्होंने.. पढ़कर आज भी आँखें नम हो जातीं हैं.. कब फिर से वो पीपल बसेगा? न जाने कब?
आज इस ब्लॉग की शुरुआत घर से करतीं हूँ. मेरी लेखनी पिताजी से प्रेरित है.. उन्हें सदा ही लिखते देखा है और उनका अनुसरण करते करते पता नहीं कब ये लेखनी सादे कागज़ पर चलकर उसपर सुख, दुःख, प्रेम, क्रोध सब कुछ उतारने लगी! पापा हमें हमेशा से समय का मूल्य समझाते रहे. घर में सदा से ही प्रातः शीघ्र उठने की परंपरा रही है, कभी-२ क्रोध आता जब सुबह की मीठी निद्रा के मध्य उनके जल्दी उठने का अनुरोध करते स्वर सुनाई देते. हम कभी प्रसन्नता तो कभी विवशता में सुबह ४.०० बजे उठकर पढने बैठ जाते. परन्तु आज उन्ही पिताजी के ऋणी हैं जब जीवन में कम से कम समय व्यर्थ करने का पश्चात्ताप नहीं है. कभी प्रसन्नता तो कभी गर्व होता है कि ऐसे पिता मिले जो जीवन के कई दर्शन बातों बातों में समझा गए. एक बानगी देखिये, प्रतिदिन हमें उठाते समय ये जयशंकर प्रसाद की पंक्तियाँ गुनगुनाया करते थे...
समय भागता है प्रतिपल में, नव अतीत के तुषार कण में,
हमें लगा की भविष्य रण में आप कहीं छिप जाता है.
धूप छाँव के खेल सरिस सब जीवन बीता जाता है
बुल्ले मेघ हवा की झोंके मेघ और बिजली की टोंकें,
किसका साहस है जो रोके, ये जीवन का नाता है.
धूप छाँव के खेल सरिस सब जीवन बीता जाता है.
बंसी को बस बज जाने दो, आँख बंद करके गाने दो,
हमको जो कुछ भी आता है, धूप छाँव के खेल सरिस सब जीवन बीता जाता है.....
ईश्वर से प्रार्थना करतीं हूँ की हर जन्म में आप ही पिता रूप में मिलें....
"आपकी रनिया..."
ये ब्लॉग मेरे मन के भावों को व्यक्त करने का एक प्रयास है... वो सब भावनाएं जो कही अनकही रह गईं हैं, लिख रहीं हूँ...