Thursday, September 17, 2009

उनकी कलम से...

कभी-कभी आश्चर्य होता है कि जीवन का चक्र भी कैसा है! अपने ह्रदय के टुकडों को सीने से लगाकर माता पिता परवरिश करते हैं हर संघर्ष से लड़ने लायक बनाते हैं और फिर एक दिन वही बच्चे उन्हें छोड़कर आगे बढ़ जाते हैं... पर यही रीति है.. समय का चक्र भी यही. किन्तु कभी पीछे रह गईं उन सूनी आँखों को पढ़ा है?? विद्यालय से निकलने के बाद मैं मेरठ पढने आगई और आशीष (भाई) लखनऊ. परास्नातक के बाद ५ वर्ष का शोध और फिर उसके तुंरत बाद विवाह. अब तो देश से भी बाहर हूँ. लगता है उनके साथ बिताया समय कितना कम था. हमेशा मम्मी पापा ही सेवा करते रहे दुःख हरते रहे हम क्या कर सके उनके लिए? अब तो आशीष भी नौकरी कर रहा है लखनऊ में और मम्मी पापा अकेले रायबरेली में. मैं भी इतनी गंभीरता से न सोचती यदि उस दिन पापा कि लिखी ये पंक्तियाँ न पढ़ती..

बाग़ का बाग़ सूना पड़ा है,
पतझर का झोंका इतना कड़ा है,
वृक्ष से उड़ गए सब पखेरू,
धूप में निर्जीव पीपल खडा है...


बस यही लिखा था उन्होंने.. पढ़कर आज भी आँखें नम हो जातीं हैं.. कब फिर से वो पीपल बसेगा? न जाने कब?

1 comment:

  1. स्वर्णिमा,
    बहुत खूब, जिंदगी ऐसा ही है. अगर कुछ पाना हिया तो बहुत कुछ खोना है. पाने के बाद ऐसा लगता है की जो छोड़ दिया वाही अच्छा था.
    मगर जिंदगी की नियम ही ऐसा है जिसे बदलना मुश्किल है.
    लिखते रहो

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