Tuesday, September 22, 2009

पेड़ अमरुद का..

बचपन की मित्रता सदा याद रहती है. मुझे याद है हर समय पुस्तकों में उलझी रहने वाली मैं स्वभाव से हंसमुख होने के बावजूद कोई आत्मीय मित्र नहीं बना सकी. न जाने कब मन ने अपने आँगन में खड़े उस अमरुद के पेड़ को अपना मित्र मान लिया.. नन्हीं लेखनी ने तब उस मित्र के लिए कुछ शब्द उकेरे थे.. कुल जमा ११ वर्ष की आयु में लिखे गए वो पहले शब्द अब भी उस घनिष्ठ मित्र की याद दिलाते हैं जो घर के आँगन के विस्तार के समय उसकी लघुता के साथ स्वयं अपनी आहुति भी दे गया. आँखें बहुत दिन रोती रहीं फिर धीरे-२ समझ गईं अब वो कभी नहीं आएगा. आज इस स्वार्थी विश्व में लोगों की कटुता देखकर अपने उस मित्र की याद आती है जो बस देना जानता था. कहते हैं हर जीव में आत्मा होती है. न जाने आज तुम्हारी आत्मा किस रूप में होगी? अपनी सखी को पहचानती भी होगी या नहीं पर ये पंक्तियाँ तुम्हे समर्पित थीं और सदा रहेंगी...

कितने आए कितने गए, कितने जुड़े कितने खुले,
पर ये सिर्फ तुम हो जो रहे अडग, निश्छल, अचल.
तुम्हारी सरसराती बाँहें देतीं हैं अहसास कोमलता का,
तुम्हारी मीठी मीठी छाँव देती है अहसास ममता का,
हरे हरे पत्तों से सीखा मैंने जीना,
और झरे पीले पत्तों से, सारे दुःख बस हंसकर पीना.
मीठे-मीठे फलों से अपने कभी हमारी भूख मिटाते,
कड़ी धूप सह छाया देकर जीना हमको सदा सिखाते,
अजब प्रेम का मूर्त रूप है, तुम्हारा ये बदन मनुज सा,
फिर किस प्रकार कहूँ मैं कि तुम हो बस एक पेड़ अमरुद का?

स्वर्णिमा "अग्नि"

1 comment:

  1. Dear Swarnima,

    words are really good, nice article, keep going
    Long Live Friendship

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