Tuesday, January 26, 2010

अंतर्मनन

जीवन भी क्या अंतहीन अनुभवों की यात्रा है! हर कदम पर मिलते नए पड़ाव, नए व्यक्तित्व, और हर दिन एक नई कहानी... हर दिन सोकर उठने के बाद मस्तिष्क का सोची समझी दिनचर्या पर चलने की सोचने में क्या हैरानी है? पर हैरानी तब महसूस होती है जब ऐसा होता नहीं. अब आज की ही देखिये, सुबह उठकर सूर्य को नमस्कार करने की सोची परन्तु आज सूर्य देवता बर्फ की चादर ओढ़े विश्राम कर रहे हैं. ये एक छोटा सा उदाहरण है इच्छा और नियति में अंतर का. ये इच्छा है जो वस्तुस्थिति को स्वयं के हिसाब से देखना चाहती है और ये नियति है जो चाहते, न चाहते हुए आपको और बहुत कुछ दिखाती है.

अपने जीवन में आज बहुत कुछ देखा सुना याद आ रहा है. बहुत छोटी थी जब घर के बाहर एक भिखारी की कटी उंगलियाँ देखकर सिहर उठी थी. तब दुनियां में सब ऐसे बेबस लोगों के लिए मन करुणा से भर गया और घर वालों की नज़र बचाकर अपनी गुल्लक की जमा पूंजी उसे दे आई. कुछ ही वर्षों बाद एक बार कानपुर सेंन्ट्रल स्टेशन पर सुबह तडके कुछ लोगों को सही सलामत उँगलियों पर पट्टी बांधते देख पिता जी ने बताया की ये भीख मांगना भी एक व्यापार है! जीवन की पहली सीख.. फिर अनगिनत ऐसे ही अनुभव हुए. stage पर कवियों द्वारा दी जाने वाली नैतिकता की दुहाई हो या stage से नीचे उनकी गिद्धदृष्टि, सामने मिलकर मीठी मुस्कान बिखेरते अतिथिगण और पीठ मोड़ते ही यजमान द्वारा स्वागत सत्कार में रह गईं कमियां बखान करते उनके श्रीमुख, असफलता के दौरान मखौल उड़ाते तथाकथित शुभचिंतक और सफलता मिलते ही उनका शंकालु प्रशंसात्मक रवैया, बड़े शो-रूम्स में बिना किसी मोलभाव के हजारों खर्च कर देने वाले का भरी दुपहरी में की बूढ़े रिक्शे वाले से २ रु. के लिए लड़ना, ए.सी. कार में बैठी जूस पीती उस वृद्धाश्रम के सामने से गुज़रती बहू की मृतप्राय भावनाएं, जहाँ सास-श्वसुर के सूखे होंठ १ गिलास पानी का इंतज़ार कर रहे हैं या फिर अपने शोध कार्य को दूसरों के नाम पर छपते देखने वाले की पीड़ा, जीवन है क्या आखिर, अनुभवों की पोटली मात्र?

शिकायतें भी हैं.. धन्यवाद भी.. कृतज्ञता है तो कृतघ्नता भी... ये ऐसे ही विरोधाभासी अहसासों की डोर है जिसके फंदे से वो ऊपर बैठा भी बचता नहीं. एक उदाहरण और है इन अहसासों से जुड़ा हुआ. स्वयं को मैं भाग्यशाली मानकर ईश्वर को हर कदम पर धन्यवाद देती आई हूँ पर कल तो उन पर भी क्रोध आया.. हमारे एक स्वीडिश मित्र को कुछ ४ वर्ष पहले शरीर के बाएँ भाग में पक्षाघात हुआ. पिछले आठ महीनों से हमने उसे सुबह से शाम तक अकेले इस जीवन से लड़ते देखा है. कल उससे मिलकर मैं और पति उसका मनोबल बढ़ा रहे थे या स्वयं का, पता नहीं. ये देश जहाँ माता पिता भी बच्चों को स्वतंत्र बनाने के उद्देश्य से एकाकी छोड़ देते हैं वहां ऐसा होना किसी बुरे सपने से कम नहीं... वो व्यक्ति फिर भी जी रहा है! हर कदम पर डगमगाता, जीवन की डोर सम्हालता, मुस्कुराता! जहाँ तक मैं जानतीं हूँ उस जैसा ऊर्जावान और आत्मविश्वासी व्यक्ति मैंने पहले नहीं देखा जो बहुतों से अच्छा इंसान भी है. हाँ क्रोध आता है.. लोग कर्म में विश्वास करते हैं पर ईश्वर भी कहीं न कहीं तो है वरना ये प्रकृति कैसे संचालित हो रही है? फिर क्यों इस दुनियां पर कहर टूटते हैं? क्यों भले इंसानों की सहनशक्ति की परीक्षा वो ऊपर बैठा लेता रहता है और अपराधी स्वस्थ घूमते रहते हैं? जब-जब इन अहसासों से दो चार होतीं हूँ तब-तब एक ग़ज़ल में खुद को ढूढने निकल पड़तीं हूँ:
एँ खुदा रेत के सहरा को समुन्दर कर दे या छलकती हुई आँखों को तू पत्थर कर दे..

मनुष्य उस सर्वशक्तिमान की सर्वश्रेष्ठ रचना है. शायद इसीलिए अच्छे से अच्छा और बुरे से बुरा देख और झेल सकना भी सिर्फ उसी के लिए संभव है. ये जीवन सिर्फ फूलों की ही डगर नहीं, काँटों का भी रास्ता है. राह में चलते फूल और कांटे चुनते हम भी चले जा रहे हैं जब तक ये जीवन चलाए, और देखते जा रहे हैं जब तक दृष्टि बिना धुंधलाए ये सब दिखाए... बस एक ही प्रण लेकर, हम भी संघर्षों से लड़ेंगे, किसी की तो नियति बदलेंगे, स्वयं के मिट जाने तक, जीवन की आखिरी साँस आने तक....

स्वर्णिमा "अग्नि"

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