Wednesday, September 16, 2009

पिताजी

आज इस ब्लॉग की शुरुआत घर से करतीं हूँ. मेरी लेखनी पिताजी से प्रेरित है.. उन्हें सदा ही लिखते देखा है और उनका अनुसरण करते करते पता नहीं कब ये लेखनी सादे कागज़ पर चलकर उसपर सुख, दुःख, प्रेम, क्रोध सब कुछ उतारने लगी! पापा हमें हमेशा से समय का मूल्य समझाते रहे. घर में सदा से ही प्रातः शीघ्र उठने की परंपरा रही है, कभी-२ क्रोध आता जब सुबह की मीठी निद्रा के मध्य उनके जल्दी उठने का अनुरोध करते स्वर सुनाई देते. हम कभी प्रसन्नता तो कभी विवशता में सुबह ४.०० बजे उठकर पढने बैठ जाते. परन्तु आज उन्ही पिताजी के ऋणी हैं जब जीवन में कम से कम समय व्यर्थ करने का पश्चात्ताप नहीं है. कभी प्रसन्नता तो कभी गर्व होता है कि ऐसे पिता मिले जो जीवन के कई दर्शन बातों बातों में समझा गए. एक बानगी देखिये, प्रतिदिन हमें उठाते समय ये जयशंकर प्रसाद की पंक्तियाँ गुनगुनाया करते थे...

समय भागता है प्रतिपल में, नव अतीत के तुषार कण में,
हमें लगा की भविष्य रण में आप कहीं छिप जाता है.
धूप छाँव के खेल सरिस सब जीवन बीता जाता है
बुल्ले मेघ हवा की झोंके मेघ और बिजली की टोंकें,
किसका साहस है जो रोके, ये जीवन का नाता है.
धूप छाँव के खेल सरिस सब जीवन बीता जाता है.
बंसी को बस बज जाने दो, आँख बंद करके गाने दो,
हमको जो कुछ भी आता है, धूप छाँव के खेल सरिस सब जीवन बीता जाता है.....

ईश्वर से प्रार्थना करतीं हूँ की हर जन्म में आप ही पिता रूप में मिलें....
"आपकी रनिया..."

2 comments:

  1. स्वर्निमाजी,
    ब्लॉग प्रपंचा में आपका स्वागत है,
    एक अच्छी शुरुवात आपका हुआ है
    ऐसे ही लिखते रहिये

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  2. मनोबल बढ़ाने का धन्यवाद गुरु..

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