Saturday, September 6, 2014

शब्द!

शब्दों से ज़्यादा ध्वनि इस मौन की है, ये बिन कहे बोलता है, मन पसीजता है, जब अपना कोई बिन बोले, मन में भाव तौलता है!! जीवन कैसी राह है, यहाँ शब्दों की रणभूमि है, अब बोलो तो तलवारें, बिन बोले ललकारें हैं! बोल तो सब बचपन से रहे हैं, क्या बोलना है सदियों समझ नहीं आता, जानवर हमसे बेहतर हैं, इंसान होके ये बोलने का गम मौत तक नहीं जाता!! स्वर्णिमा "अग्नि"

Friday, June 20, 2014

अब तक की जीवन यात्रा में हुए अनुभव पर

हंसते लोग बुझते लोग, धीरे धीरे खुलते लोग, मित्र बनाकर मूर्ख बनाते, भीतर भीतर जलते लोग. अच्छे भी हैं काफ़ी लोग, बड़ी समझ के बेहतर लोग, जाने कैसे कब मिल जाएँ, संयोगों के चलते लोग. हमे मिले हैं कदम कदम पर, बहुत तरह के ऐसे लोग, हर दिन पढ़कर भी ना समझे, तौबा जाने कैसे लोग!! स्वर्णिमा "अग्नि"