Tuesday, November 17, 2009

क्या लिखूँ?

आज इस लेख की शुरुआत करने से पहले बता दूँ कि ये लेख हिंदी साहित्य के महान लेखक श्री पदुमलाल पुन्नलाल बक्षी जी के समान शीर्षक वाले लेख "क्या लिखूं" से किसी प्रकार की समानता नहीं रखता, हाँ शीर्षक अवश्य समान है जो मस्तिष्क में कई दिनों से चल रही उधेड़बुन का परिणाम है. मैंने अक्सर अपने मस्तिष्क में उठने वाले विचारों को किसी सागर की लहरों की भांति महसूस किया है जो किसी शाम तीव्र उछ्रंखलता में आकाश छूने को उद्यत होतीं हैं तो किसी शाम एक झील के शांत जल की भांति सहमी रहतीं हैं. अर्थ ये है कि कभी तो विचार इतने तीव्र होते हैं कि किसी लेखनी में भी समाहित नहीं हो पाते और कभी ये मन मस्तिष्क सब कुछ एक रिक्त कोष बन जाता है. अभी कुछ ही दिन पूर्व ये स्थिति थी कि लिखने का समय नहीं था, जब लिखने बैठी भी तो वैचारिक तीव्रता इतनी थी कि शब्दजाल ने स्वयं लेखक अर्थात मुझे उलझा लिया, और आज जब समय है तो सभी सार्थक विचार एक दूसरे का हाँथ पकड़ कर जैसे किसी और लोक में विचरण करने चले गए हैं.. कल शाम को ही जब पति ने मुझे टोंका (मेरे लेख पढना कब उनका प्रिय शगल बन गया ये हम दोनों ही नहीं जानते, कई दिन तक मेरा लिखा कुछ न पढने पर अक्सर मुझे याद दिला दिया करते हैं) कि कुछ लिखो प्रिये, तो न जाने उस प्रेम भरे संबोधन या फिर अपनी परम मित्र इस लेखनी से कुछ दिन का विछोह (दोनों ही मुझे समान रूप से विवश कर सकते हैं), जो भी कारण रहा हो आज लिखने बैठ गई... पर वही विवशता, क्या लिखूं???

एक लेखक लेखनी से न्याय करे यही लेखन की आवश्यकता होती है. मन में चल रहे विचारों को ईमानदारी ही नहीं समाज में पढ़े जाने लायक (यदि सार्वजनिक रूप से लिख रहे हैं तो) सभ्य शब्दों की भी आवश्यकता होती है. ये सब बटोर रहीं हूँ, लिखना कब रूचि से आवश्यकता बन गया, नहीं जानती! और आज लिखना दोहरी आवश्यकता है ये पहले ही बता चुकी हूँ.. पर क्या लिखूं??

जीवन में घटी कोई रोचक घटना? नहीं आज कोई ऐसी सार्थक घटना याद नहीं आ रही... क्या लिखूं? जीवन के प्राप्य-अप्राप्य लक्ष्यों के बारे में लिखूं? पर क्या करुँगी आप सबको इनका साक्षी बनाकर? ये जीवन इतना भी तो प्रेरक नहीं! यूरोप की अतिसुन्दर प्रकृति के विषय में लिखूं या नीचे किलकारियां मारकर खेल रहे सुन्दर गोल मटोल गुड्डे गुड़ियों से दिखते बाल गोपालों की लीलाएँ... या फिर ये देव-गन्धर्व-यक्ष कन्याओं से भी सुन्दर दिखती, तेज़ चाल में चलती विदेशी नवयुवतियों के विषय में लिखूं? क्यों आज इनमें से किसी का भी वर्णन करने की इच्छा नहीं? ये घड़ी की टिक-टिक के सिवा क्यों मस्तिष्क कुछ और नहीं सुन रहा है और बार-बार शून्यता की दुहाई देकर लैपटॉप-स्क्रीन पर टाइप करते मेरे हांथों की उँगलियों पर हंस रहा है? या फिर विवश है? आज इसी उधेड़बुन में इन अधूरी पंक्तियों के साथ लेखनी को विराम देतीं हूँ... शायद कुछ अनर्गल सा लिख भी गईं हूँ... ये सोचते सोचते कि "क्या लिखूं"?

स्वर्णिमा "अग्नि"